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बाँस का टुकड़ा

ए अरविंदाक्षन

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2389
आईएसबीएन :00000

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इस कथा काव्य में महाभारत की कुरूक्षेत्र-युद्ध-कथा का वर्णन किया गया है...

Baans Ka Tukda a hindi book by A. Arvindakshan - बाँस का टुकड़ा - ए.अरविंदाक्षण

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युद्ध को उत्तर आधुनिक संस्कृति पर्याप्त मान्यता दे रही है। इसलिए युद्ध विरोधी दृष्टि यानी मनुष्यधर्मी दृष्टि मामूली सिद्ध हो रही है। संस्कृति के इस विघटनात्मक पक्ष को हमारा ‘पठित समाज’ विश्लेषण का विषय मानता है और ‘ज्ञान-समाज’ अनदेखा करता है। जिस पर गम्भीर बहस होनी चाहिए वह अंगहीन होता जा रहा है। युद्धोत्सुकता इस कारण से सदैव बढ़ती जा रही है। दरअसल इसमें मनुष्य का अप्रमुख हो जाना मुख्य नहीं है बल्कि इसमें आदिम बर्बर समाज की जन्तु सहज नैतिकता बल प्राप्त करती रही है। मनुष्य सापेक्ष सहजता, जन्तु सापेक्ष नैतिकता के पैर तले चरमरा रही है। युद्ध विहीन समाज की परिकल्पना आज इसलिए असम्भव है कि वह अधिकार के साथ ऐसी जुड़ गयी है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अधिकार का मोह असांस्कृति माहौल का सृजन करता है और वह युद्ध को भी सृजित करता है। युद्ध एक संयोग नहीं बल्कि वह सुनियोजित तंत्र है।
‘बाँस का टुकड़ा’ एक कथा काव्य है इसमें महाभारत की कुरूक्षेत्र-युद्ध-कथा को उत्तर आधुनिक सामाजिक के संदर्भ में देखने का प्रयास किया गया है।

भूमिका के बहाने

काल एक अजस्त्र, अनाम, अनन्त प्रवाह है। इस ‘रिवर ऑफ नो रिटर्न’ की परिकल्पना कर स्वर्गीय पंडित नरेन्द्र शर्मा ने, जिन्होंने कभी लिखा था-‘सुमुखि, तुमको भूल जाना असम्भव है, असम्भव’ और ‘आज का बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे’, मार्क्सवाद के द्वन्द्व से प्रभावित होकर ‘द्रौपदी’ और ‘सौवीरा’ खंडकाव्य लिखने के बाद जीवन के अन्तिम दिनों में वे दूरदर्शन के ‘महाभारत’ धारावाहिक के दोहे लिख रहे थे। उन्होंने महाचक्र की कल्पना उस धारावाहिक के निर्माता को दी थी। काल की भारतीय परिकल्पना ‘चक्रनेमिक्रम’ (कालिदास) और ‘पुनरपि जननी जठरे शयनम्, पुनरपि मरणम् पुरपि जननम्’ (चपर्ट मंजरी-आदि शंकराचार्य) की है। उसी आदि शंकर के केरल से हमारे प्रिय मित्र तरुण कवि अरविन्दाक्षन से अनेक वर्षों पहले भेंट हुई, अज्ञेय के कथा-साहित्य पर लिखे उनके पी.एच.डी. शोध प्रबन्ध के परीक्षक के नाते।
महाभारत जिसे ‘उग्र’ ने विश्व का ‘आदि उपन्यास’ कहा (देखिए साहित्य सन्देश उपन्यास विशेषांक) है-हमारी भी चालीस वर्ष की चिन्ता रहा है। मराठी में आठवले शारद्दी के प्रसिद्ध श्लोक हैं। मूल सहित अनुवाद पढ़ने के बाद हमने उस ग्रन्थ पर पाँच छह भाषाओं में चालीसों पुस्तकें पढ़ीं और गुनीं। उनमें से एक मूल मराठी, बाद में गुजराती, अंग्रेजी, हिन्दी और अब मलयालम में अनुवादित ‘युगान्त’ लेखिका : डॉ. इरावती कर्वे) पुस्तक की याद मुझे अरविन्दाक्षन के इस छोटे खंडकाव्य को पढ़कर आ गई। यह पुस्तक मुझसे केन्द्रीय साहित्य अकादमी में जब मैं था, बँगला की आधुनिक कविता के प्रेणता बुद्धदेव बसु माँगकर ले गए। उनकी अन्तिम पुस्तक ‘महाभारत’ पर ही थी।

प्रसिद्ध नृवंशशास्त्री इरावती ने महाभारत की अस्तित्ववादी व्याख्या दी थी। दुर्गा भागवत ने ‘व्यास पर्व’ नामक मराठी पुस्तक बाद में लिखी। इसका भी वसंत देव द्वारा हिन्दी में अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ ने छापा है। कर्ण पर तो अनेक उपन्यास नाटक कई भाषाओं में हैं। पीटर ब्रूक्स ने फ्रेंच में जो महाभारत पर महानाटक पेरिस में विश्व के पात्रों को लेकर किया, वह भी उस कालजयी ग्रन्थ की आधुनिक व्याख्या है। मैं जानता हूँ कि डॉ. अरविन्दाक्षन ने ये सब पढ़े या देखे नहीं हैं। पर धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ से इस काव्य की तुलना अवश्य की जा सकती है। युद्ध की व्यर्थता आज के सभी कवि और विचारकों का चिन्ता-विषय है। कृष्ण को मूल में रखकर बहुत ही अच्छे ढंग से अरविन्दाक्षन ने इसे स्मृति-बन्धों के सहारे प्रकट किया है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’, रत्नाकर के ‘उद्धव शातक’, या कृष्ण पर ही लिखे गए गाडगूलकर के ‘गीत कृ़ष्णायन’ (मराठी) का आनन्द इस पुस्तक में मिलता है। दिनकर के ‘कुरुक्षेत्र’ से इसकी शैली भिन्न है।

महाभारत स्मृति नहीं है, पुराणोतिहास है। परन्तु उसकी स्मृति आज भी हमारी धृति और संस्कृति में झंकृति उत्पन्न करती है। जब अरविन्दाक्षन लिखते हैं ‘कुरुक्षेत्र गलत भाषा की कृति है/कुरुक्षेत्र का व्याकरण नहीं है’, वह मानते हैं कि भीष्म कर्ण सुयोधन, द्रोण का अन्त गलत भाषा के चार परिणाम थे :


कुछ भी न बचे
एक प्रलय सा आ जाए और
गलत भाषा के ऊपर छा जाए।


अरविन्दाक्षन आशावादी हैं-‘ध्वंस के दलदल की ओर वे जा रहे हैं, मैं उन्हें रोकना चाहता हूँ।
आज भी विश्व को युद्ध की विभीषिका सता रही है। कृष्ण का जो मानवीय रूप अरविन्दाक्षन ने प्रस्तुत किया है, उसकी प्रेमासक्ति का जो वर्णन किया है, वह उस दूरागत ‘भारत’ को निकट का ‘सच’ बना देता है। अन्य में अरविन्दाक्षन कहते हैं-


कुरुक्षेत्र ने अस्त्रों को जन्म दिया
कुरुक्षेत्र ने मेरी बांसुरी छीनी
फिर भी कुरुक्षेत्र की इति नहीं हुई।


मनुष्य के मन के भीतर ही यह ‘मोहन’ है, यह ‘धर्म’ है, यह दुःशासन है, यह ‘नरो वा कुंजरो वा’ है। विश्व-मन की यह टोह अरविन्दाक्षन की कविता के अनेक आयाम परत-दर-परत उद्घाटित करती जाती है-मानव और प्रकृति, मानव और प्रेम, मानव और मोह, सत्ता और स्वतन्त्रता का संघर्ष यह द्वन्द्वों के समाहार और प्रेम, मानव और मोह, सत्ता और स्वतन्त्रता का संघर्ष-यह द्वन्द्वों के समाहार का सतत् प्रयत्न इस छोटी सी पुस्तक में इंगितों, संकेतों, प्रतीकों द्वारा सुझाया गया है।
अरविन्दाक्षन अपनी इस पहली कृति पर बधाई के पात्र हैं। मातृभाषा हिन्दी न होने पर भी कविता में उनकी पैठ और उसकी रचना पर उनका अधिकार सराहनीय है। उनका काव्य पढ़ते समय 1959 में एरणाकुलम में देखी कथकली में दुःशासन वध और भीम द्वारा जंघा से रक्त लेकर द्रोपदी के केशों को धोने का रोमांचकारी दृश्य पुनः सजीव हो उठा। अनेक स्तरों पर यह काव्य कृति सहृदय को छुएगी। यह ‘वंश’ से उखड़ी कृष्ण के अधरों तक पहुँची सप्तस्वर की साधना है। ‘गीतांजलि’ का पहला ही गीत है-‘‘तुम बार-बार मुझको फूँकते हो और भरते और खाली करते हो।’’

20 मार्च, 1989
73, वल्लभनगर,
इन्दौर-452003
प्रभाकर माचवे


दूसरे संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर



‘बाँस का टुकड़ा’ शीर्षक कथा-कव्य की रचना पन्द्रह वर्ष पहले हुई थी और इसकी पहली प्रस्तुति ग्यारह वर्ष पहले। वर्षों के पश्चात् जब इस कथा-काव्य का द्वितीय संस्करण निकल रहा है तो रचनाकार के नाते मुझे खुशी का अनुभव हो रहा है जो स्वाभाविक है। मुझे इस बात की भी खुशी हो रही है कि यह कथा-काव्य महात्मा गांधी विश्वविद्यालय (कोट्टयम, केरल) के बी.ए. के पाठ्यक्रम में स्वीकृत हुआ था और विद्यार्थियों एवं अध्यापकों ने इसे बेहद पसन्द किया था। जब यह कथा काव्य पाठ्यक्रम पुस्तक के रूप में पढ़ाया जा रहा था तो उस समय मेरा कई कालेजों में जाना हुआ और इस रचना के बारे में अपना वक्तव्य भी देना पड़ा। विद्यार्थियों और अध्यापकों की उत्सुकता तथा तत्परता ने मुझे सचमुच चकित कर दिया था। उन्हें कई प्रकरण कंठस्थ थे। उन्होंने कई प्रकार के प्रश्न किये। वे इस रचना में डूबे हुए से प्रतीत हुए। एक कवि को इससे बढ़कर और क्या चाहिए। अब इसका दूसरा संस्करण निकल रहा है। मित्रवर दिनेश जी के प्रति मैं आभारी हूँ। उनके स्नेह के कारण कुछ और पाठक इसे पढ़ पायेंगे।

लेकिन इस कथा काव्य का एक दूसरा पक्ष है जो इसके वस्तु पक्ष से सम्बन्धित है। जब कभी मैं इससे होकर गुजरता हूँ, जब कभी इसकी कुछ पंक्तियाँ याद करता हूँ तो मन अनियंत्रित हो जाता है। युद्ध की नृशंसता और उसकी अमानवीय भीषणता ने ही मुझे बाध्य किया था और यह रचना सम्भव हो पायी थी। आज भी हमारी वही स्थिति है। हमने युद्ध को मानो अपनी संस्कृति के साथ जोड़ दिया है। आज अमानवीयता सम्भवतः अमानवीयता नहीं रही। यह कैसी विडम्बना है ! संस्कृति के इस अन्तर्विरोध को हमें कब तक ढोना पड़ेगा ? युद्धरूपी अयाचित अग्निकुण्ड में न जाने कितने लोग जला दिये जायेंगे ? कौन जाने ? कितने कृष्णखत्म होते रहेंगे ? अवसाद के अतल में पहुँच गया हूँ। फिर भी मैं बाँसुरी की लययुक्त मन्द्र-ध्वनि की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।


ए. अरविन्दाक्षन



आत्मकथ्य



युद्ध की नृशंसता आज हम अपनी दहलीज पर अनुभव कर सकते हैं। इसलिए इस नृशंसता के शिकार बने कइयों की मृत्यु हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा फासला छोड़ जाती है। यह मृत्यु नहीं है, हमारी अनैतिकता का ही प्रक्षेपण है।
महाभारत के सन्दर्भ में इस अनैतिकता की व्यापकता को देखते हुए तथा कृष्ण को केन्द्रीय स्थिति में आँकते हुए यह लम्बी कविता लिखी गई है। कृष्ण के पात्रत्व में हम अपनी बहुत सारी संकल्पनाओं का साक्षात्कार कर सकते हैं। मैंने कृष्ण के पात्रत्व में उस प्रबल पक्ष को देखा जो उनमें निहित युद्ध-विरुद्ध दृष्टि है। गीता प्रवचन को भी मनुष्य के यथार्थ की खोज का आख्यान माना गया है।

पौराणिक सन्दर्भों के अनेक परिदृश्य इसके लिए उपयुक्त बनाए गए हैं। परन्तु कथा-विस्तार में जाने का कार्य नहीं किया गया है।
आदरणीय माचवेजी ने इसकी वास्तविक भूमिका लिखी। उनके आशीर्वाद के समक्ष नतशिर हूँ।


ए. अरविन्दाक्षन



1



बाँस का यह टुकड़ा
कब मेरे हाथ आया
स्वर-सागर का यह क्षण
मैंने कब अपनाया।

यह मेरी बाँसुरी
मेरे एकान्त में की सहचर
मेरी अभिव्यक्ति है।
वादन करते-करते मैं
उसके एकान्त में पहुँचता हूँ
वह एक निर्झर है
एक लहरिल प्रवाह
नादों का स्रोत
रागों का पल्लवन
मैं उसके एकान्त का सहचर।
मेरी यह बाँसुरी
मेरी अभिव्यक्ति है।

उसके छेदों में राग है
रागों में जीवन है
जीवन का विस्तार है
मेरी यह बाँसुरी
मेरे एकान्त की सहचर।

उसमें से अबराग उतरते नहीं
एक खामोशी एकदम घेर लेती है।
वह कौन-सा राग है
जिसके आगे लड़ते-झगड़ते मनुष्यों का व्यूह है
वह कौन-सा नाद है
जिसके आगे अपने भी गैर हो जाते हैं
वह कौन-सा निनाद है
जिसके आगे चुप खड़ा आकाश है।
यह मेरी बाँसुरी
अब एक बाँस का टुकड़ा है।
बाँस के इस टुकड़े ने
एक कुल को लड़ते देखा
आपस में वार करते देखा।
उसमें से छेद गायब हो गए हैं
नाद गुमसुम हो गया है
राग विलीन हो गया है
अब यह बाँस का टुकड़ा है।

बाँस का यह टुकड़ा
एकदम सूखा है
एक डंडा है।
कृष्ण के हाथ में एक सूखा डंडा है
अब इसे फेंक देना है
क्योंकि कृष्ण बाँसुरी वादक है।

2

वह दृश्य भीषण नहीं था
पर उस वक्त बाँस के टुकड़े में से कौन सा छेद बन्द हो गया ?
वह दृश्य दारुण नहीं था
पर इतिहास के कुछ अंश खण्डहर होते जा रहे थे।

एक धीमी-सी आवाज
आह !
वह एक तड़पती क़राह थी
एक अनाम योद्धा के अन्तिम-क्षण की तड़प।
कृष्ण सिहर उठा
श्मशान की चुप्पी के बीच की उस आह के साथ
कृष्ण शिथिल था।
वह तड़पती कराह धीरे से मन्द पड़ गई
कृष्ण के सामने कुरुक्षेत्र का विशाल मरुस्थल था।
झुका हुआ आकाश था।
नक्षत्रविहीन।

रात्रि की घुप्प अंधियारी को छेदकर
मशालों की पंक्तियाँ
स्थिर अंकित हुईं
महिलाओं का झुंड
श्मशान की सीमा रेखा के पास एकदम बर्फ-सा ठंडा था।
पर है वह जलती राख
चिनगारी है वह।
कृष्ण ने सुनी।
वह अशरीरी-
‘‘कृष्ण !
तुमने रोका नहीं
तुम रोक सकते थे
तुमने यह पाप करवाया है
तुम्हारा कुल
तुम्हारी वधुएँ
तुम्हारे वंशज
लड़-झगड़कर
मर-मिटकर
शिथिल निराधार...
कृष्ण...!’’

यह गांधारी का अभियान है
गांधार की यह राजकन्या
कब अग्नि-पर्वत बन गई होगी ?
उसका ओढ़ा हुआ अंधापन
लावा के समान उबलता मौन

अब वह फूटेगी
अब वह टूटेगी
उसे बहना ही होगा
यह गांधारी का अभियान है
यह एक प्रवाह है।

उसे फूटने दो
उसे टूटने दो
सुयोधन के शरीर की अस्तव्यस्तता के समीप
उसके शिथिल अंगों के समीप
उसेक कुरुक्षेत्र के समीप
उसे फटने दो।

रोती-कलपती वत्सला माँ की रुआँसी में
परिणत होने दो।
यह गांधारी का अभियान है ?
उसकी आँखें शून्य हैं
अंग शिथिल
वह कन्या है
पर वह वृद्धा है
वह माँ है।

वह माँ है,
थकी, हारी और हताश
वह सुयोधन के अंगों की ओर देखती है
सुयोधन के टूटे अंगों को सँभालती है
अनियंत्रित होकर एकटक देखती है।
यह गांधारी का अभियान है
गतिहीन वधुओं के मध्य से
गांधारी के शब्द सटीक थे :
‘‘कृष्ण !...’’

वह एक अनाथ माता का प्रलाप नहीं था।
वह एक राजमाता का कोप नहीं था
वह एक स्त्री की आह थी
गांधार की राजकन्या की तपिश।
एक अग्निपवंत फूट रहा था।
लावा बह रहा था
कृष्ण मुस्कराता खड़ा था।

‘‘कृष्ण !
तुमने यह करवाया ’’
कृष्ण मुस्कराता रहा
‘‘तुम यह रोक सकते थे ’’
कृष्ण मुस्कराता रहा
‘‘तुम्हारा कुल
तुम्हारी वधुएँ’’
कृष्ण मुस्कराता रहा।

‘‘भीषण ध्वंस तुम देखोगे
अपने को निराधीर पाओगे
देख मेरी वधुओं को देख उनकी आर्द्रता को
कृष्ण !
तुम्हारी वधुएँ
बीभत्व ध्वंस के बलात्कार के अधीन बिखरेंगी
तुम्हारी यह मुस्कान
यह बाँसुरी
कुछ नहीं कर पाएगी
कृष्ण !
तुम यह रोक सकते थे।
मैं अंधी हूँ
पर एक ज्वाला भी हूँ
मैं निरालम्ब हूँ
पर एक आस्था भी हूँ।
मैं शाप देती हूँ...’’

वह सिसकियाँ नहीं थीं।
वह तूफानी वेग था
चट्टानों को कँपाते हुए
वह तूफान कब थमा था ?
कृष्ण मुस्कराता रहा
बस इतना ही कहा-
‘‘राजमाता गांधारी !
मेरा कुरुक्षेत्र शुरू हो चुका है।’’

अभिशाप का मेघ आकाश भर में फैल चुका था
उमड़ते बादलों के बीच
वह कौन-सा नक्षत्र झिलमिला उठा था ?
बढ़ती अँधियारी में रोशनी की एक रेखा
विद्युत सी चमक
वह कौन सा नक्षत्र झिलमिला उठा था ?




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